अपना शाम का चाय का कप रखा ही था कि दरवाज़े की घंटी बजी। सिलिंडर बुक करवाया था वो होगा ,सेक्युरिटी वाला पानी का रिमाइंडर देने आया होगा जो बहुत दिनों से हमारी परेशानी का सबब बना हुआ था, एक बालकनी से दरवाज़े तक कितने विचार आ जाते हैं हमारे मन में,मन की गति... सबसे तेज़...कौन होगा राम जाने.....चहल कदमी तेज़ करते हुए दरवाज़ा खोला...
" इतने शाम पड़े सो रही थी??? दरवाज़ा खोलने में इतना समय कैसे लगा दिया?" मेरी दूर की बुआ ,जो मुम्बई में ही रहती है पर बहुत दूर होने के कारण ज़्यादा आना जाना नहीं करती, बड़े उपहास ,जो थोड़ा बाहर की गर्मी से और गर्म हो गया था, के स्वर में बोली।
" आजकल की लड़कियों में तो ज़रा भी Ishtemina( अंग्रेजी बोलने का बड़ा शौक पर अंग्रेजी को उनके पास आने का ज़रा भी शौक नहीं) नहीं रह गया। हमारे ज़माने में तो कोल्हू के बैल की तरह दिन भर चला करते थे तो भी Inergee( आशय Energy ) रहा करती थी।" दरवाज़े के अंदर कदम भी पूरे नहीं पड़े थे कि उनका उपदेशात्मक प्रसाद मुझे मिल चुका था,आगे के समय के लिए खुद के लिए भगवान् से प्रार्थना करते हुए मैंने उनका बैग उनके कंधे से लिया और उन्हें पंखे के नीचे आ जाने को कहा।
"पानी तो बड़ा मीठा आता है तुम्हारे यहाँ!!" एक सांस में पूरी गिलास ख़तम हो जाने पर उनके मुख से दो शब्द अच्छे सुनने पर थोड़ा अच्छा महसूस कर रही थी मैं।
" मुन्ना क्या कर रहा है दिखाई नहीं दे रहा?" घर में चारो तरफ नज़रें घुमा कर ठीक टीवी सीरियल में आती किसी भुआजी की तरह उन्होंने पूछा।
"सो रहा है भुआ!! आज दिन में ठीक से नींद नहीं निकाली तो थक के अभी सोया है" उन्हें संतोष हो सके इसलिए मैंने कारण भी साथ में लगाना उचित समझा।
चाय फिर बनाई गयी और उनके मन पसंद पोहे वड़े भी। बातों का सिलसिला( जिस सिलसिले में वो Speaker थीं और मैं केवल listner) चल पड़ा।
उनकी बातें एक स्टेशन से चल पड़ी रेल गाड़ी की तरह थी। हर स्टेशन से वो कोई ना कोई टॉपिक रुपी पैसेंजर को चढ़ाती और उनके बारे में पूरा विश्लेषण कर अगले स्टेशन उन्हें उतार देतीं। उनकी बातों के सफर में ऐसा कोई पैसेंजर नहीं बचता जो उनके सफर ( या बेहतर कहूँ Suffer) में शामिल ना किया गया हो। किसने उनका दिल दुखाया,किसने उनका ठीक से सम्मान ना किया,किसके बेटे लायक हैं और किनके नालायक ...सबकी पोथी पन्नी वो अपने साथ ले कर चलती थीं।
" फिर क्या करती हो दिनभर?? घर का काम तो इतना रहता नहीं,मुन्ना भी छोटा है और जंवाई जी तो पूरा दिन बाहर रहते हैं?" शायद अगली पैसेंजर मैं थी।
" कुछ नहीं भुआ, विहान(मेरा बेटा) के आगे पीछे भागने में ही पूरा दिन निकल जाता है पता ही नहीं चलता। और फिर भी जो थोड़ा बहुत समय दिन में मिलता है उसमें कुछ लिख लेती हूँ। " मैंने कहा।
"लिख लेती हूँ?? क्या?? कहाँ लिख लेती हो?" दोनों आँखों को ऊँची करके बड़ी गंभीर मुद्रा में उन्होंने पूछा।
" जी Blog लिखती हूँ, मतलब कुछ भी जो मन में आ रहा हो या जो कुछ मैं महसूस करती हूँ,कुछ मेरे अनुभव ,कुछ वाकये,सब कुछ। कभी रोज़मर्रा में काम आने वाली टिप्स और कभी औरतों के सम्मान में कुछ...कुछ भी जो मैं महसूस करती हूँ।" Blog शब्द से वो विचलित हो जातीं इसलिए मैंने पहले ही थोड़ा description देना उचित समझा।
"अरे वाह!! ये बलोग(अथार्त Blog) नाम की चिड़िया कब पकड़ ली तुमने? खैर छोड़ो!! हमें भी बताओ क्या लिखा अब तक। किसी से कहेंगे तो अच्छा लगेगा कि बलोग भी पढ़ना आता है हमें"। खुद पर थोड़े गर्वान्वित होने वाले लहज़े में उन्होंने मुझे ब्लॉग दिखाने का आदेश दिया।
बड़े चाव से वो मेरे लेख पढ़ रही थीं, मुझे भी एक 55 साल की गाँव से सम्बन्ध रखने वाली स्त्री को ब्लॉग जैसे मॉडर्न टूल पर काम करते( चाहे वो पढ़ना ही हो) देख बड़ा अच्छा लग रहा था।
"Hmnn...तो तुम्हे आदमी लोग पसंद नहीं हैं? जंवाई सा अच्छा नहीं रखते क्या तुम्हे? या ससुराल वालों से नहीं बन रही आजकल? समस्या क्या है भाई??" उन्होंने थोड़े चिंतित लेकिन जिज्ञासु स्वर में टिपण्णी की।
" नहीं ! ऐसा तो कुछ नहीं है भुआ! ऐसा क्यों कह रही है आप?" मैंने बिलकुल अनअपेक्षित भाव से उनसे पूछा।
" अरे भाई तुम्हारे सारे लेखों में बेचारी औरत, अबला नारी ,पीयर और ससुराल में फर्क,यही सब तो है??? मतलब साफ है कुछ परेशानी तो है.. क्या बात है
"तुम मर्दों के Against क्यों लिखती हो?"
भीतर तक चोट कर गया था ये सवाल मुझे। औरतों की व्यथा के बारे में लिखना आदमियों के असम्मान में लिखना होता है ,ये तो मुझे आज पता चला था। अगर कोई स्त्री अपने पीयर और ससुराल में अपने साथ हो रहे अलग अलग व्यवहार( ज़रूरी नहीं वो दुर्व्यवहार हो) को शब्दों में उतार कर अपनी मनः स्थिति समझाना चाहती है मतलब उसे ससुराल वाले अच्छा नहीं रखते। अगर माँ बनने के बाद वो अपने बारे में वैसा महसूस नहीं करती जैसी वो पहले थी तो मतलब उसे माँ बनने से परेशानी है। अगर वो अपने कलम से अपने अनुभवों को बयां करती है तो अबला नारी है वो। और अगर उसी कलम से अपने अधिकारों की जंग छेड़ दे तो समाज में ना ढल सकने वाली क्रांतिकारी है।
मैंने ऐसा कब कहा कि मैं आदमी का सम्मान नहीं करती। Feminism का मतलब कहीं भी मेरे लिए ये नहीं है कि मैं कट्टरपंथी हूँ। मैं आदमी और औरत, दोनों को समाज का ऐसा अभिन्न अंग मान के चलती हूँ जिसका अपनी अपनी जगह अपना अपना वर्चस्व है। दोनों एक दूसरे को पूरा करते हैं और एक उच्च समाज का निर्माण करने में दोनों अपना अतुलनीय भाग निभाते हैं।
हाँ ! पर इतना ज़रूर आश्वस्त कर सकती हूँ कि मैं किसी भी तरह के बनी बनाई धारणाओं का निर्वाह नहीं कर सकती.... मैं अपने बच्चों को ऐसे सामजिक ढाँचे का अंग नहीं बनने देना चाहती जहां नारी मात्र एक शोभनीय वस्तु मानी जाती हो और पुरुष उस वस्तु का सिरमौर।
" अरे कहाँ खो गयी?? चाय उबल उबल कर कड़वी हो जाएगी!" भुआजी ने मेरे अंदर अचानक आये उस तूफ़ान को रोक दिया..और अच्छा ही किया नहीं तो कहीं उस तूफ़ान के झटके कहीं उन्हें ही नहीं महसूस हो जाते और मुझे किसी बड़े को दो टूक जवाब देने का लांछन सहना पड़ता।
बड़ी मुश्किल से मैंने एक छोटी सी बनावटी हंसी अपने चेहरे पर चढ़ाई और उनके लिए चाय और वड़े लाई। अभी तो इतनी हिम्मत नहीं जुटा पायी हूँ की उन्हें ये सब समझा सकूँ पर कोशिश रहेगी
।।" ये कलम कभी रुके नहीं ,बहरहाल ये ज़बां बंद होगी तभी"।।
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