आँखें मूंदे, ललाट पर चिंता की सलवटे लिए, हाथ सर पर रखे तुम्हारा ख्याल कर रही हूँ माँ। कुछ शिकायतें हैं तुमसे। कुछ कहना है तुमसे माँ।
तुम तो कहती थी ,दूसरे घर जा रही हो लेकिन कोई फर्क नहीं होगा। चेहरे बदल जाएंगे पर रिश्तों के नाम नहीं बदलेंगे। माँ बाप भाई बहन सब ऐसे ही होंगे वहां। जैसे चहकती पंछी हो यहाँ वैसे ही गुड़िया सी भी रहोगी वहां।
कुछ बदलेगा नहीं,बस रिश्तों के मायने बदल जाएंगे ,ये तुमने क्यों नहीं सिखाया माँ?
उस घर को अपना समझना,जैसा यहाँ रही वैसी वहां भी रहना। जितना प्यार हमारे इस घर में बिखेरा वैसा वहाँ भी बिखेरना। कोई पराया नहीं है वहां तेरा,अपने आप को समर्पित करना, यही कहती थी ना तू मुझे।
समर्पण की परिभाषा सम्मान के गिरने से बनती है, ये तूने मुझे क्यों नहीं सिखाया माँ?
अपना सर्वस्व न्योछावर करना,अपनी ममता दुलार से घर को उजागर करना, अन्नपूर्णा का हाथ ,शैलजा का तेज़ और सीता की शर्म नज़रो में रखना, ये सीख आज भी गूंजती है कानो में मेरे।
पर बुरी नज़र पर रिश्तों को बचाने के लिए सहम कर चुप रह जाना था,ये तूने क्यों नहीं सिखाया माँ।
पाई पाई कर पैसा जोड़ना,तिनके तिनके से घर बनाना,रखना अपनी ख्वाहिशें थोड़ी समेट कर, देना मान घर के बड़ों को। बनना अपने साथी की संगिनी हर कदम पर , उज्जवल करना उनका भविष्य तू ,यही कहती थी ना तू मुझे मेरे बाल संवारते हुए।
उनकी महात्त्वकांक्षाओ को बाबुल के पसीने से सींचना था, ये तूने मुझे क्यों नहीं सिखाया माँ?
पढ़ो और अपनी पहचान बनाओ, एक नहीं दो दो कुलों का नाम रोशन करवाओ, सपने देखो और उनको पूरा कर के परिवार का नाम बढ़ाओ।
बहुएँ घर में काम करने के लिए होती हैं और शोभा बढ़ाने के काम आती है , ये तूने मुझे क्यों नहीं सिखाया माँ?
बेटी तो ईश्वर का वरदान होती है, आँगन में जो बेटी का फूल खिले तो पूरी परिवार रुपी बगिया महके। खुशनसीब होती है वो माँ जिनके घर बेटी जन्म लेती है। ऐसा ही समझाती थी ना तुम जब मौसी दो दो लड़की होने के कारण दुखी होती थी।
बेटी बनकर हम किसी के घर का बोझ बन जाते हैं, बेटी बनकर उनकी मज़बूरी बन जाते है ,बेटी है तो फ़ालतू का खर्चा बन जाते है,बेटी है तो काम करने की मशीन बन जाते है,बेटी है तो वंश बढ़ाने की जिम्मेदारी बन जाते हैं ,ये तूने मुझे क्यों नहीं सिखाया माँ ...क्यों नहीं सिखाया।
No comments:
Post a Comment