आज मन बड़ा व्याकुल है,शाम को ही अपनी एक सहेली से फ़ोन पर बात हुई। उसके घर वाले पिछले 2 साल से उसके लिए लड़के ढूंढ रहे हैं, पर कोई ना कोई समस्या आ खड़ी होती,कभी कद,कभी गुण, कभी सोच का अन्तर। अब तो ऐसा हाल था कि उसके माता पिता कॉम्प्रोमाइज करने को भी तैयार हो रहे थे लड़के के छोटे मोटे दोषो को नज़रअंदाज़ करके।
जैसे ही कोई लड़के वालों का फ़ोन आता,वो लोग ऐसे तैयारी करने लग जाते जैसे भगवान पधार रहे हों। पूरे घर की साज सज्जा,महँगी मिठाइयां,और तो और सब लोग अपना काम धाम छोड़कर उनकी आवभगत में लग जाते। ये सिलसिला एक बार का नही है ,पिछले 2 सालों से यही क्रम चल रहा था उसके घर में। अमृता(मेरी सहेली) बैंक में बहुत अच्छी पोस्ट पर काम करती है और बहुत सुंदर भी दिखती है। एक सुलझी हुई लड़की जो अपने जीवन को पूरी ज़िंदादिली से जीती है।
पर वो पिछले 2 साल से चल रहे इस देखने दिखाने के क्रम से बहुत परेशान हो गयी थी ।कितनी बार उसे बैंक मैनेजर से मिन्नते करनी पड़ती छुट्टी लेने के लिए । 1-2 बार तक तो ठीक था पर बार बार मांग करने पर तानो का शिकार भी होना पड़ता। फिर उसने बीमारी का बहाना बनाकर मैनेज करने की कोशिश की।
अभी की ही बात है,कल लड़के वाले आ रहे है । वो लड़के वाले जिन्हें अमृता के पापा पिछले 2 साल से फ़ोन कर रहे हैं लेकिन कभी वो फ़ोन उठा नही रहे थे ,तो कभी आवाज़ नही आ रही कह कर टाल जाते थे। आज भी उन्होंने ये कहने के लिए फ़ोन नही किया था कि वो क्षमाप्रार्थी हैं बात ना कर पाने के लिए बल्कि उनकी बातों में एक अजीब सा दम्भ था, जिसे वो अपनी अकड़ में छुपा रहे थे। शायद उनकी परफेक्ट लड़की की लिस्ट की सब लड़कियां खत्म हो गयी थी। इसलिए कल उसे देखने आएंगे कह कर फ़ोन रख दिया।
इधर अमृता के माता पिता पूरी तैयारी करने लगे और अमृता परेशान सी अपना काम ।
वो इस बात से परेशान थी कि उसकी नौकरी की कोई वैल्यू नही, उसके स्वाभिमान का कोई मान नही है ,उसके माता पिता की मिन्नतों का कोई सरोकार नही। बस लड़के वालों का फ़ोन आया और सब लोग उनकी चाकरी करने की तैयारी में लग गए। अमृता में ऐसी कोई कमी नही थी कि कोई समझदार लड़का उसे मना करे पर फिर भी अगर किसी कारण से उन लोगो ने 2 साल तक टालमटोल किया तो कुछ कारण तो रहा ही होगा। लड़का भी साधारण सी नौकरी में ही था तो कुल मिलाकर इतनी अकड़ का सवाल ही नहीं उठता।
अब कल क्या होगा जब वो लड़का और उसका परिवार अमृता को देखने आएगा ये तो मैं आपको बाद में बताउंगी पर सवाल अभी भी वहीं का वहीं है....आखिर क्यों हम अपनी बेटियों के लिए स्टैंड नही ले सकते। क्यों हम उन्हें ये नही कह सकते कि हमारी बेटी की नौकरी और लीव भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी लड़के की। क्यों उनके बार बार टालने पर हम उनके आमंत्रण को ठुकरा नही सकते। क्यों हम अपने घर को सजाने की बजाय उनका घर देख के नहीं आते कि वहां हमारी बेटी खुश रहेगी या नहीं।
ये कहानी एक घर की नहीं बल्कि हर घर की है हर लड़की की है। सबसे पहले हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। लड़की कोई नुमाइश की वस्तु नहीं कि उसे सजा धजा कर पसंद करने के लिए बिठा दिया जाए। लड़के वालों को अपने बेटे पर घमंड करने की बजाय मेल जोल और स्नेह से दोनों पक्षों को बराबर का मान देना चाहये। लड़की वालों को अपनी बेटी पर भरोसा कर उसे निरंतर उसके अपने अस्तित्व होने की परिभाषा सिखानी चाहिये।
इंसान हैं तो इंसान बनकर ही इस पुण्य काम को करें ,भगवान बनने की कोशिश ना करें।
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