Tuesday, April 11, 2017

Sorry पापा!!

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"माँ"..भगवान के निर्माण की सबसे सुंदर उत्कृष्टि। शायद ही कुछ और होगा जो माँ से भी सुंदर, सौम्य और आत्मीय हो। खुशी में,दुख में, परेशानी में, सबसे पहले माँ याद आती है, और याद आना लाज़मी भी है। अपनी  कितनी रातों की नींद गंवाई होगी उसने हमारी नींद के लिए,अपनी कितनी ख्वाहिशों का गला घोटा होगा हमारी ज़िद्द को पूरा करने के लिए,अनजाने में कितने निवाले छीन लिए होंगे हमने उसके,अपने स्वाद को पूरा करने के लिए। इस दुनिया की कल्पना करना नामुमकिन होता शायद अगर माँ नहीं होती तो।
स्कूल के दिन थे। मैं 10वीं कक्षा में पढ़ती थी। एक लड़का मुझे रोज़ परेशान करता था। कभी मेरी साईकल को पंक्चर कर जाता तो कभी मेरी होमवर्क कॉपी छुपाकर अपने पास रख लेता। मेरे कुछ ना कहने को मेरी कमज़ोरी समझ कर धीरे धीरे उसने दूसरे लड़को के साथ मिलकर मेरा मज़ाक बनाना भी शुरू कर दिया था। मैं परेशान रहने लगी ।स्कूल जाने का भी मन नहीं करता था। उदासी मेरे चेहरे पर दिखाई देने लगी। मां ने पूछा भी पर वो परेशान ना हों इसलिए मैंने बहाने से टाल दिया। रात को कमरे में पढ़ाई कर रही थी कि दरवाज़े पर आहट हुई। मुड़कर देखा तो पापा खड़े थे। वो बहुत कम ही मेरे पास आकर बैठा करते थे जब मैं पढ़ाई कर रही होती थी। इसलिए मुझे थोड़ा अजीब लगा पर मैंने उन्हें मुस्कुराकर पूछा, " क्या हुआ पापा, आप इतनी रात को?"।
"तबियत ठीक है ना बेटा? कुछ दिनों से बुझी सी लग रही हो? " उन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
उनके ये पूछते ही मेरी आँखों में आंसू आ गए। और उनके गले लगाते ही तो जैसे सुनामी बह गई। मैंने स्कूल का पूरा वाक़िया उनको सुनाया। अगले दिन वो मेरे स्कूल जाने के बाद मेरी क्लास टीचर से मिलने आए और उनसे बात करके मेरी मुश्किल आसान कर दी।
जब मेरे दादा दादी ने मुझे Ph.D के लिए एग्जाम ना देने की हिदायत दी ,ये कह कर कि ज़्यादा पढ़ लिख जाएगी तो बराबर के लड़के नहीं मिलेंगे शादी के लिए,तब पापा ही थे जिन्होंने कहा था," दूसरों के सांचे में ढलने के लिए हम अपनी रीढ़ की हड्डी तो नहीं तोड़ सकते ना"। और उन्हीं की बदौलत मैं अपने सपनों की उड़ान भर पायी।
जब मुझे लड़का देखने आया। सब कुछ अच्छा था उसमें पर उम्र में मुझसे 5 साल बड़ा। उनकी तरफ से "हाँ" हो गयी थी और हमारे समाज में  आज भी वही रूढ़िवादी धारणा है कि लड़का अगर हां कर दे तो समझो शादी पक्की। उम्र का वो अंतर मुझे दिन रात खटकता था। तब भी वो पापा ही थे जिन्होंने मेरी बैचेनी को समझा और अपने परिवार और सदियों से चली आ रही कट्टरपंथी सोच को बदला,उन लड़के वालों को  "ना" बोलकर। ससुराल में चलने वाले शुरुवाती मनमुटावों को उन्होंने कभी मेरे दुख और अकेलेपन का कारण नहीं बनने दिया। अपने परिवार को खुश रखने के साथ साथ उन्होंने मुझे खुद के लिए भी जीना सिखाया।
और आज भी जीवन के हर मोड़ पर खड़ी रहने वाली छोटी छोटी समस्याओं में मैं उन का साथ पाती हूँ। उनके ठहाके,चुटकियां और किस्से, यूँ ही दुख भुला जाते हैं और चेहरे पर मुस्कान छोड़ जाते हैं।
निःसंदेह माँ की तुलना किसी से भी करना बेमानी है लेकिन हम अक्सर अपने अनुभवों में पिता के समर्पण को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। जब एक स्त्री माँ बनती है तो वो पहले ही दिन से उस शिशु से जुड़ जाती है जो उसे फिर जिंदगी भर के लिए उसे जोड़े रखता है लेकिन  जब एक पुरुष पिता बनता है तो बिना किसी शारीरिक जुड़ाव के उन सारी प्रेम,कारुण्य,समर्पण की सीमाओं को लांघ जाता है जो इतने सालों  से उसे पुरुष होने के दम्भ में जकड़े हुई थी। जितना वो पति बनकर या बेटा बनकर अपने आप को नहीं समझ पाता उससे कई ज़्यादा अपनी भूमिका को सशक्त कर पाता है जब वो पिता बनता है।
हम माँ को कभी अपने  शब्दों और कभी अपने आँसुओ से हमारे मन की बात कह जाते हैं पर हम कभी उस शख्सियत को  बयां नहीं कर पाते हमारा प्यार दुलार, जिसने कदम कदम पर अनकही आवाज़ में हर कदम हमारी उंगली थामी है,बिना रोये हमारे आँसुओ को पोंछा है,कितनी बार समाज से हमारे लिए लड़ाई की है और हमेशा हमारे सर पर उनकी " बेटी" होने के गौरव का ताज रखा है।
आज का ये लेख सारे " पिता" के नाम जिन्होंने उनके घर की कली को उस निःस्वार्थ माली की तरह पाला,अपनेपन के बीज को बोया,अपने प्यार से सींचा और प्रीति से संजोया....जो  दूसरों की बगिया में जाकर अपनी सुगंध बिखेरेगी , उस सीख रूपी डोर से उस पराये घर को बांधेगी। जैसे गुलाब की कलम को उससे अलग करने पर और मिट्टी में दूसरी जगह बो देने पर वह फिर से एक नए पौधे का रूप ले लेती है ठीक उसी तरह एक पिता अपने आप का टुकड़ा काट कर उस कलम को दूसरी मिट्टी में दे देता है....उससे उसी का हिस्सा होकर भी हमेशा अलग होने के लिए। इतना समर्पण शायद एक पिता ही कर पाता होगा।

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